कामयाबी पाने का मूल मंत्र दूसरों के प्रति निस्वार्थ सेवा का भाव रखना है। नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा किसी का भी हृदय परिवर्तन कर सकता है। व्यक्ति को चाहिए कि अपने आचरण में सदैव सेवा का भाव निहित रखें जिससे अन्य लोग भी प्रेरित होकर कामयाबी के मार्ग पर अग्रसर हो सके। जब हम एक दूसरे के प्रति सेवा भाव रखते हैं तब आपसी द्वेष की भावना स्वता समाप्त हो जाती है। सेवा से बढ़कर कोई परोपकार नहीं है ।बचपन से लेकर मृत्यु तक सेवा ही एकमात्र ऐसा आभूषण है जो हमारे जीवन को सार्थक कर सकता है ।
संस्कृत में श्लोक है
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम।।
अर्थात जो व्यक्ति सुशील और विनम्र होते हैं, बड़ों का अभिवादन व सम्मान करने वाले होते हैं तथा अपने बुजुर्गों की सेवा करने वाले होते हैं। इससे उनकी आयु, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
हम सभी महान कार्य तो नहीं कर सकते लेकिन निस्वार्थ सेवा कर अपने समाज व परिवार का नाम रोशन कर सकते हैं। हम सभी को निस्वार्थ भाव से जीवन को जीने की कला अपने भीतर विकसित करनी चाहिए। निस्वार्थ भाव रखते हुए समाज हित में लगातार कार्य करना ही मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। आज के इस पोस्ट में एक ऐसे ही निस्वार्थ रूप से की गई प्रेरक घटना के बारे में बताऊंगा।
बिहार के जहानाबाद में एक ब्राह्मण रहते थे । पिछले कई वर्षों से पितृपक्ष महीने में श्राद्ध करवाने गया जाना होता था ।
प्रत्येक वर्षकी भाँति इस बार भी श्राद्ध करवाने पहुँचे। पंद्रह दिन जप-पूजन इत्यादि करनेके पश्चात् वे वापस अपने घरके लिये गया रेलवे स्टेशन पहुंचे । उस समय शामका समय था और वे ट्रेन आनेकी प्रतीक्षा करने लगे। चूँकि उनकी पाचन शक्ति कमजोर थी, इस कारण वे जब कभी दूसरे स्थान जाते , तो पानी बदलनेके कारण पेटसम्बन्धी परेशानियाँ होने लगती
। उस दिन भी ऐसा ही हुआ ।एकदमसे उनको शौचका आभास हुआ और बहुत घबरा गए कि अब वे क्या करें ।ट्रेन आनेका समय हो गया था और शौचालय प्लेटफार्म नम्बर एकपर ही था। ऐसे में इतना अधिक सामान जो कि प्लेटफार्म नम्बर नौ तक ऑटोरिक्शावालेकी मददसे ले आ पाया था, उसे लेकर कैसे और कहाँ जाऊँ— इस असमंजसकी स्थितिमें कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी उनके बगलमें एक अनजान व्यक्ति आकर बैठ गया। फिर उन दोनोंमें कुछ बातें होने लगीं। आदमी भला लग रहा था, उन्होंने उससे अपनी परेशानी बतायी । यह सुनकर उसने कहा कि 'देखिये, भाईसाहब! इस प्लेटफार्मपर तो कोई शौचालय नहीं है। आपको प्लेटफार्म नम्बर एकपर जाना पड़ेगा।' आप यही समान रख दे और शौचालय चले जाएं,मैं आपका समान देखता रहूंगा । वे सोचे कि इस अजनबीपर कैसे विश्वास किया जाय और पूरा सामान इसके भरोसे छोड़कर कैसे चला जाऊँ ? उस व्यक्ति ने उनकी मनोदशा समझ ली ।वह बोला कि आइये, मैं आपको प्लेटफार्म एकतक लिये चलता हूँ।' इतना कहते हुए उन भले व्यक्तिने भारी सामान उठा लिया और उनके साथ उस स्थानतक आया। फिर वे शौचादिसे निवृत्त हो पुनः उसके साथ प्लेटफार्म नम्बर नौ तक आ गया। तभी ट्रेन भी आ गयी, उसने उनको ट्रेनमें भी बिठा दिया। फिर वे सारा सामान व्यवस्थितकर जब उनका शुक्रिया अदा करनेके लिये मुड़े , तो वे वहाँ नहीं थे। वे उन्हें वहाँ खोजनेका प्रयास भी किया, परंतु वे नहीं दीखे । धन्य हैं ऐसे व्यक्ति, जिनके हृदयमें किसी अनजान लोगों के प्रति इतनी करुणा थी। उसके द्वारा किया गया यह कार्य निःस्वार्थ सेवा का एक अनुपम उदाहरण है।